पटना : कभी जनता के बीच साइकिल चलाने वाले, खेत में हल चलाने वाले और सड़क किनारे चाय की चुस्कियाँ लेने वाले नेताजी, अब उसी जनता से डरने लगे हैं.
जी हाँ—वही जनता, जिनके वोट से नेताजी की गाड़ी चलती है, और जिनके टैक्स के पैसों से उनके एसी दफ्तर, मोटी कुर्सियाँ और सुरक्षा घेरे चलते हैं.
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क्या अब जनता इतनी ‘खतरनाक ताकत’ बन गई है कि नेताजी को बॉडीगार्ड, बैरिकेड और पुलिसिया घेरा लगाना पड़ रहा है?
राजनीति में डर कोई नई चीज़ नहीं है. लेकिन यह डर अब ‘जनता’ से है—ये तो गजब है!
चुनाव के वक्त नेताजी टोपी पहनते हैं, माला डालते हैं, बच्चों को गोद में उठाते हैं, कीचड़ में उतरकर वोट मांगते हैं.
लेकिन जैसे ही कुर्सी मिलती है, जनता सिर्फ वोटर लिस्ट की एक टिक-मार्क बनकर रह जाती है.
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सोशल मीडिया पर मीम्स की बाढ़ आ गई है—
कोई लिख रहा है, “नेता जी अब जनता को दूर से देखना पसंद करते हैं, जैसे लोग भूत-प्रेत से डरते हैं”
तो कोई कह रहा है, “जनता से मिलने में खतरा है, वोट मांगने में नहीं.”
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असल सवाल ये है—नेताजी को डर किस बात का है?
क्या जनता के सवालों से डर है?
क्या गुस्से में आकर जनता उन्हें ‘जनादेश’ की याद दिला देगी?
या फिर जनता को पास आने देने से उनकी ‘छवि’ धूल में मिल जाएगी?
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नेता और जनता के बीच बढ़ती यह दूरी लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है.
क्योंकि लोकतंत्र में जनता सिर्फ वोट डालने वाली मशीन नहीं, बल्कि सवाल पूछने, हिसाब मांगने और आईना दिखाने का हक रखने वाली ताकत है.
अगर नेता जनता से मिलने से ही डरने लगें, तो ये डर शायद उनके कामों का नतीजा है.
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बिहार की सियासत में यह पहली बार नहीं है जब नेताओं की सुरक्षा जनता पर भारी पड़ी हो.
फर्क बस इतना है कि अब जनता कैमरे में सब कैद कर, सोशल मीडिया पर वायरल कर देती है.
और मानिए या नहीं—यही कैमरे का डर, नेताजी की नींद उड़ा रहा है.
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तो नेताजी, अगर डर ही लगना है, तो वोट के समय जनता के पास जाइए मत.
वरना जनता भी कह देगी—”जब हमसे मिलने में डर लगता है, तो हमसे वोट लेने क्यों आए थे?”
लेखक परिचय: रंजीत कुमार सम्राट सहारा समय (डिजिटल) के बिहार हेड हैं. 20 साल से बिहार के हर जिले की सियासत पर गहरी नज़र रखते हैं. पिछले दो दशक से बिहार की हर खबर को अलग नजरिये से पाठक को समझाते रहे हैं.
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