सास–बहू रिश्तों का नया समीकरण: परंपरा, आधुनिकता और सकारात्मक बदलाव
भारतीय परिवारों में सास–बहू का रिश्ता हमेशा चर्चा का विषय रहा है. कभी यह तनाव और तकरार का प्रतीक बना तो कभी सहयोग और समझ का. बदलते सामाजिक ढांचे और पीढ़ियों की सोच में अंतर ने इस रिश्ते को और जटिल बना दिया है. पर विशेषज्ञ मानते हैं कि संवाद, सम्मान और समझदारी से यह रिश्ता परिवार को मजबूत करने वाला भी बन सकता है.
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पीढ़ियों का टकराव: सोच और आदतों में फर्क
वरिष्ठ समाजशास्त्री डॉ. मीना रस्तोगी कहती हैं,
“आज की पीढ़ी स्वतंत्रता और निजी स्पेस चाहती है, जबकि पुरानी पीढ़ी सामूहिक जिम्मेदारियों और परंपराओं को महत्व देती है. यही फर्क सास–बहू के बीच खींचतान का कारण बनता है.”
- बुजुर्गों की अपेक्षा: अनुशासन, रीति-रिवाज और ‘बड़ों की मान-मनौती’.
- नई पीढ़ी की अपेक्षा: बराबरी, निजी फैसलों का सम्मान और आधुनिक जीवनशैली.
यह टकराव तब कम हो सकता है जब दोनों पक्ष एक-दूसरे की प्राथमिकताओं को समझें और थोड़ी लचीलापन दिखाएं.
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संयुक्त परिवार में बहू की भूमिका: परंपरा बनाम आधुनिकता
संयुक्त परिवार में बहू को अक्सर “घर संभालने वाली” भूमिका में देखा जाता रहा है. लेकिन आज की शिक्षित और कामकाजी बहुएं इस छवि को नए ढंग से परिभाषित कर रही हैं.
क्लिनिकल मनोवैज्ञानिक डॉ. आलोक वर्मा बताते हैं,
“बहुओं को केवल जिम्मेदारी निभाने वाली भूमिका में न बांधकर, उन्हें निर्णय लेने की स्वतंत्रता देना जरूरी है. तभी वे परिवार को अपनेपन से संभाल पाएंगी.”

इस बदलाव का असर यह है कि संयुक्त परिवार अब सहयोग पर आधारित हो रहे हैं, न कि केवल परंपरा पर.
आर्थिक नियंत्रण: घर के खर्च पर किसका अधिकार?
घर के खर्च और आर्थिक फैसलों पर अक्सर सास–बहू के बीच टकराव देखने को मिलता है.
- पुरानी पीढ़ी: “गृहलक्ष्मी” का अधिकार मानकर खर्च का निर्णय अपने हाथ में रखना चाहती है.
- नई पीढ़ी: पारदर्शिता और साझेदारी चाहती है.
रिलेशनशिप काउंसलर राधा कपूर कहती हैं,
“आर्थिक फैसले में परिवार के सभी सदस्य शामिल हों तो विवाद कम होते हैं. सास–बहू को एक टीम की तरह मिलकर काम करना चाहिए, न कि विरोधी पक्ष की तरह.”
सकारात्मक उदाहरण: जब सास–बहू बनें दोस्त
देशभर में कई ऐसे परिवार हैं जहां सास–बहू का रिश्ता दोस्ती और सहयोग का रूप ले चुका है.
- सास बहू को बेटी की तरह अपनाती है.
- बहू सास को केवल “घर की मुखिया” नहीं बल्कि “सहेली और सलाहकार” मानती है.
- आर्थिक फैसलों से लेकर बच्चों की परवरिश तक में वे मिलकर निर्णय लेती हैं.
डॉ. रस्तोगी का कहना है,
“जब सास–बहू में आपसी भरोसा होता है तो परिवार की नई पीढ़ी भी रिश्तों की मिठास सीखती है.”
सास–बहू का रिश्ता सिर्फ तनाव का पर्याय नहीं है, बल्कि सहयोग और साझेदारी का भी हो सकता है. पीढ़ियों के फर्क को स्वीकार करना, आर्थिक पारदर्शिता और संवाद की आदत इस रिश्ते को सकारात्मक दिशा में ले जा सकती है.
👉 सीख यही है: सास–बहू अगर दोस्त बन जाएं, तो परिवार केवल चलता ही नहीं, बल्कि फलता-फूलता भी है.