नई दिल्ली: आज से ठीक 50 साल पहले, 25 जून 1975 को भारत के इतिहास में एक काला अध्याय शुरू हुआ था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की. यह दौर, जो 21 मार्च 1977 तक चला, भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़ा सबक बन गया.
क्यों लागू हुआ आपातकाल?
1970 के दशक में भारत आर्थिक और राजनीतिक उथल-पुथल से गुजर रहा था. बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता सड़कों पर थी. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विपक्षी आंदोलन ने सरकार को घेर लिया. इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले ने आग में घी डाला, जिसमें इंदिरा गांधी का 1971 का लोकसभा चुनाव रद्द कर दिया गया. संविधान के अनुच्छेद 352 का हवाला देते हुए सरकार ने “आंतरिक अशांति” के नाम पर आपातकाल लागू कर दिया.
जनता पर क्या बीती?
आपातकाल के 21 महीनों में लोकतंत्र जैसे थम सा गया.
- नागरिक अधिकार निलंबित: बोलने की आजादी, प्रेस की स्वतंत्रता और विरोध का अधिकार छीन लिया गया.
- प्रेस पर सेंसरशिप: अखबारों को सरकार की मंजूरी के बिना कुछ भी छापने की इजाजत नहीं थी. कई पत्रकार जेल भेजे गए.
- विपक्ष का दमन: जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया.
- जबरन नसबंदी: जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर सरकार ने नसबंदी अभियान चलाया, जिसे जबरदस्ती लागू करने के आरोप लगे.
- संवैधानिक बदलाव: 42वां संशोधन लाकर सरकार और प्रधानमंत्री के अधिकारों को और मजबूत किया गया.
आपातकाल का अंत और सबक
1977 में जनता के भारी दबाव के बाद आपातकाल हटाया गया. उसी साल हुए आम चुनाव में कांग्रेस को करारी हार मिली, और जनता पार्टी सत्ता में आई. यह जीत भारतीय लोकतंत्र की ताकत का प्रतीक थी. आपातकाल ने सिखाया कि सत्ता का दुरुपयोग कितना खतरनाक हो सकता है और नागरिकों को अपने अधिकारों की रक्षा के लिए हमेशा सजग रहना चाहिए.
आज की प्रासंगिकता
50 साल बाद भी आपातकाल की यादें हमें संविधान और लोकतंत्र की कीमत समझाती हैं. यह दौर हमें चेतावनी देता है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती और जनता की आवाज ही देश को सही दिशा में ले जा सकती है.
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