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Chhath पर्व में जल में खड़े होकर अर्घ्य देने की परंपरा कब और कैसे शुरू हुई?

छठ पूजा का महापर्व चल रहा है. इस महापर्व में छठी मैया और सूर्य देव की पूजा का विधान है. आज छठ का तीसरा दिन. आज शाम के समय डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया. फिर कल उगते सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही इस महापर्व का समापन हो जाएगा. सूर्य देव को अर्घ्य छठ पूजा का अहम हिस्सा है. इसके बाद ही पूजा पूरी होती है. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि यह परंपरा कब और कैसे शुरू हुई? इसके पीछे केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि गहरे वैज्ञानिक कारण भी जुड़े हैं.

छठ पूजा की उत्पत्ति
छठ पर्व की परंपरा का उल्लेख प्राचीन वैदिक काल से मिलता है. ऋग्वेद में सूर्य उपासना के मंत्रों का उल्लेख है, जिनके माध्यम से सूर्य देव को जीवन, स्वास्थ्य और ऊर्जा का स्रोत माना गया है. माना जाता है कि सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा सबसे पहले माता सीता ने अयोध्या लौटने के बाद शुरू की थी, उन्होंने सूर्य देव की उपासना कर परिवार और समाज की सुख-समृद्धि की कामना की थी.

क्यों दिया जाता है जल में खड़े होकर अर्घ्य?
धार्मिक मान्यता के अनुसार, जल (नदी, तालाब या घाट) को पवित्रता और शुद्धता का प्रतीक माना गया है. जब व्रती जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं, तो सूर्य की किरणें पानी की सतह पर प्रतिबिंबित होकर शरीर और मन दोनों को शुद्ध करती हैं. विज्ञान के अनुसार, सूर्य की पराबैंगनी किरणें (UV rays) जल के माध्यम से परावर्तित होकर शरीर में ऊर्जा संचारित करती हैं और मानसिक शांति प्रदान करती हैं.

संध्या और उषा अर्घ्य की परंपरा
छठ पर्व में दो मुख्य अर्घ्य होते हैं —
संध्या अर्घ्य: अस्त होते सूर्य को दिया जाता है, जो जीवन में कठिनाइयों के अंत और नई शुरुआत का प्रतीक है.
उषा अर्घ्य: उगते सूर्य को दिया जाता है, जो ऊर्जा, उम्मीद और समृद्धि का प्रतीक है.
दोनों अर्घ्यों में व्रती जल में खड़े होकर सूर्य देव को अर्घ्य देते हैं और परिवार की सुख-समृद्धि की प्रार्थना करते हैं.

आस्था और विज्ञान का संगम
छठ पर्व यह दर्शाता है कि भारतीय संस्कृति में धार्मिक परंपराएँ केवल आस्था नहीं बल्कि प्रकृति और विज्ञान के गहरे संबंध पर आधारित हैं. जल में खड़े होकर सूर्य की उपासना करने से शरीर की ऊर्जा संतुलित होती है और मन को शांति मिलती है.

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