आज के डिजिटल युग में बच्चों के फ़ोन, इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग तेजी से बढ़ा है. ऐसे में माता पिता के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा होता है – क्या बच्चों के फ़ोन पर नज़र रखना सही है या उन्हें विश्वास देकर उनकी खुद की समझ विकसित करना बेहतर है? यह मुद्दा केवल तकनीक से जुड़ा नहीं, बल्कि बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य, आत्मनिर्भरता और पारिवारिक संबंधों से भी गहराई से जुड़ा है.
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नज़र रखना क्यों बढ़ा?
आज साइबर बुलिंग, ऑनलाइन फ्रॉड, अनुचित सामग्री और गेमिंग एडिक्शन जैसे खतरे बच्चों को प्रभावित कर रहे हैं. इसलिए कई माता पिता बच्चों की गतिविधियों पर निगरानी रखना जरूरी समझते हैं. फ़ोन की लोकेशन ट्रैकिंग, चैट मॉनिटरिंग ऐप्स और स्क्रीन टाइम लिमिट्स जैसे टूल्स इस्तेमाल किए जा रहे हैं. लेकिन क्या यह पर्याप्त है? या इससे बच्चों में अविश्वास और मानसिक दबाव बढ़ सकता है?
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रिलेशनशिप काउंसलर की राय
रिलेशनशिप काउंसलर डॉ. रश्मि वर्मा कहती हैं: “नज़र रखना तब तक ठीक है जब तक वह संवाद का आधार बने. यदि माता पिता हर समय बच्चों की जासूसी करेंगे तो बच्चों में डर, अपराधबोध और झूठ बोलने की प्रवृत्ति बढ़ेगी. बेहतर यह है कि बच्चों के साथ खुला संवाद हो. उन्हें ऑनलाइन खतरों के बारे में समझाया जाए, साथ में नियम बनाए जाएँ और उनकी निजता का सम्मान किया जाए. विश्वास का रिश्ता बनाना दीर्घकालिक समाधान है.”
उनके अनुसार, निगरानी और विश्वास का संतुलन आवश्यक है. बच्चे जब महसूस करते हैं कि माता पिता उनके साथी हैं, तब वे खुद समस्याएं साझा करते हैं.
वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक की राय
वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक डॉ. अरुण महाजन बताते हैं: “किशोर अवस्था में आत्मनिर्णय की भावना बहुत महत्वपूर्ण होती है. बार बार फ़ोन जांचना बच्चों में चिंता और तनाव बढ़ाता है. यह उनकी आत्म छवि और आत्म सम्मान पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है. वहीं, अगर माता पिता उन्हें जिम्मेदारी सौंपते हैं और सुरक्षित ऑनलाइन व्यवहार की शिक्षा देते हैं तो वे खुद बेहतर निर्णय लेना सीखते हैं. मानसिक मजबूती और आत्म नियंत्रण विकसित होता है.”
वे यह भी जोड़ते हैं कि हर बच्चा अलग होता है. कुछ बच्चों को अतिरिक्त मार्गदर्शन की जरूरत होती है जबकि कुछ स्वतंत्रता में बेहतर सीखते हैं. इसलिए माता पिता को व्यक्तिगत परिस्थिति के अनुसार निर्णय लेना चाहिए.
किसे प्राथमिकता दें – नियंत्रण या विश्वास?
दोनों दृष्टिकोणों का उद्देश्य बच्चों की भलाई है, लेकिन तरीका अलग है.
- निगरानी तात्कालिक सुरक्षा देती है, पर रिश्तों में दरार डाल सकती है.
- विश्वास धीरे धीरे जिम्मेदारी और आत्मनिर्भरता विकसित करता है, लेकिन शुरुआत में जोखिम बढ़ सकता है यदि सही मार्गदर्शन न हो.
सही रास्ता:
- बच्चों के साथ बातचीत करें, डर या शर्म को खत्म करें.
- परिवार में डिजिटल नियम तय करें – स्क्रीन टाइम, सोशल मीडिया उपयोग, पासवर्ड साझा करने जैसे.
- बच्चों को ऑनलाइन खतरे, साइबर बुलिंग और डेटा सुरक्षा के बारे में जागरूक करें.
- निगरानी उपकरण का उपयोग केवल जरूरत पर करें, न कि आदत के तौर पर.
- बच्चों की निजता का सम्मान करें और उन्हें भरोसे का माहौल दें.
पैरेंटल कंट्रोल बच्चों की सुरक्षा के लिए उपयोगी हो सकता है, लेकिन अगर इसे संवाद और विश्वास के साथ न अपनाया जाए तो यह उनके मानसिक विकास में बाधा बन सकता है. विशेषज्ञों की राय है कि बच्चों को सुरक्षित रखते हुए उन्हें स्वतंत्रता देना ही बेहतर है. पारिवारिक संबंधों की मजबूती तभी बनती है जब बच्चों को भरोसा हो कि वे गलती करें तो भी उन्हें समझा जाएगा, दंडित नहीं. यह संतुलन ही डिजिटल युग में स्वस्थ परिवार की नींव है.