शिबू सोरेन का निधन: भारतीय राजनीति में अगर कोई नाम संघर्ष, आदिवासी अस्मिता और ज़मीन से जुड़ी लड़ाई का प्रतीक है, तो वो है शिबू सोरेन . झारखंड के ‘गुरुजी’ कहे जाने वाले शिबू सोरेन सिर्फ एक राजनेता नहीं, बल्कि एक आंदोलन का नाम हैं . लेकिन उनके जीवन की कुछ कहानियां ऐसी भी हैं, जो बहुत कम लोगों को पता हैं . झारखंड को यहां क्लिक करके समझें
- बचपन में ही पिता को ज़मींदारों ने मार डाला था
शिबू सोरेन का संघर्ष बहुत व्यक्तिगत था . जब वे सिर्फ 7 साल के थे, उनके पिता सोबरन सोरेन की हत्या ज़मींदारों ने कर दी थी क्योंकि वे जबरन वसूली और शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाते थे . इसी घटना ने उन्हें शोषण के खिलाफ लड़ने वाला योद्धा बना दिया .
- स्कूली पढ़ाई अधूरी छोड़ दी, लेकिन ‘गुरुजी’ बन गए
उन्होंने दसवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी, लेकिन आदिवासी समाज के बीच उन्हें “गुरुजी” की उपाधि दी गई . ये सम्मान उन्हें उनके ज्ञान, नेतृत्व और लड़ाकू प्रवृत्ति के कारण मिला – डिग्री भले न हो, लेकिन विचारों के स्तर पर वो किसी विश्वविद्यालय से कम नहीं रहे . Jharkhand: दुमका के बारे में Full Information
- जंगलों में चलाया ‘दिकुओं भगाओ आंदोलन’
1980 के दशक में उन्होंने एक अनोखा अभियान चलाया . “दिकू भगाओ” यानी बाहरी लोगों को आदिवासी ज़मीन से हटाओ . ये आंदोलन इतना तेज़ था कि राज्य प्रशासन को बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ा .
- राजनीति में आने से पहले आयुर्वेदिक डॉक्टर थे
बहुत कम लोग जानते हैं कि शिबू सोरेन की शुरुआती पहचान एक आयुर्वेदिक चिकित्सक की थी . उन्होंने गांव में झोपड़ी में ‘दवा घर’ खोला था और आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों से इलाज करते थे .
- जेल से निकल कर बने मुख्यमंत्री
2005 में जब उन्हें हत्या के एक पुराने मामले में सज़ा सुनाई गई थी, तो उन्होंने पद छोड़ दिया . लेकिन हाईकोर्ट से बरी होने के बाद वे फिर मुख्यमंत्री बने – ये घटनाक्रम अपने आप में अनूठा था .
- कभी संसद से ज्यादा, आंदोलन से कमाया नाम
वो कई बार सांसद रहे, पर असली पहचान उन्हें मिली आंदोलनकारी नेता के रूप में . ज़मीनी मुद्दों पर उन्होंने जो संघर्ष किया, वो लोकसभा की स्पीच से ज्यादा असरदार साबित हुआ .
- दिल्ली में झोपड़ी में रहते थे सांसद रहते हुए भी
जब वे पहली बार सांसद बने, तब भी दिल्ली में उन्होंने कोई बड़ा बंगला नहीं लिया . वो झारखंड भवन में या पार्टी के छोटे ठिकानों में ही रहते थे – बहुत ही सादा जीवन .
- बेटे हेमंत के राजनीति में आने के सख्त खिलाफ थे
शुरुआत में शिबू सोरेन नहीं चाहते थे कि उनका बेटा राजनीति में आए . लेकिन पार्टी और आंदोलन की ज़रूरतों को देखते हुए उन्होंने हेमंत को आगे बढ़ाया. और आज वो झारखंड के मुख्यमंत्री हैं .
- झारखंड अलग राज्य की लड़ाई के अगुवा रहे, लेकिन नहीं बने पहले मुख्यमंत्री
जब झारखंड 2000 में अलग राज्य बना, तो सबको उम्मीद थी कि शिबू सोरेन ही पहले मुख्यमंत्री बनेंगे . लेकिन राजनीतिक गणित ऐसा बना कि बाबूलाल मरांडी को मौका मिला, और गुरुजी को इंतज़ार करना पड़ा .
- जीवन भर ‘शत्रु’ रहे ज़मींदार, पर कभी व्यक्तिगत बदला नहीं लिया
उन्होंने ज़मींदारों के खिलाफ कई आंदोलनों का नेतृत्व किया, लेकिन कभी व्यक्तिगत तौर पर किसी से बदला नहीं लिया . यह उनकी विचारधारा की परिपक्वता और नैतिकता को दर्शाता है .

शिबू सोरेन का जीवन आदिवासी चेतना, संघर्ष और सिद्धांतों का जीवंत उदाहरण है . उन्होंने न सिर्फ राजनीति की, बल्कि समाज को दिशा भी दी . जहां आज की राजनीति में साजिशें और सत्तालोलुपता आम हैं, वहीं शिबू सोरेन जैसे नेता आदर्श की तरह खड़े दिखते हैं – जिनके लिए कुर्सी नहीं, ज़मीन और समाज पहली प्राथमिकता रही .
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