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Mathura में धूमधाम से मना कुबलियापीड़ हाथी वध मेला

मथुरा: धर्मनगरी मथुरा में भक्ति, परंपरा और उत्साह का अनूठा संगम देखने को मिला, जब वार्षिक कुबलियापीड़ हाथी वध मेला बड़ी धूमधाम और धार्मिक आस्था के साथ संपन्न हुआ. कुबलियापीड़ हाथी वध महोत्सव समिति के बैनर तले निकली इस भव्य शोभायात्रा ने पूरे शहर को कृष्णभक्ति के रंग में रंग दिया.

भव्य शोभायात्रा में उमड़ा जनसागर
शोभायात्रा की शुरुआत स्वामी घाट से हुई, जहां से निकलकर यह शहर के प्रमुख मार्गों — चौक बाजार, मंडी रामदास और डींग गेट से होती हुई केशव देव मंदिर के निकट पोतरा कुंड पहुंची, रास्ते भर श्रद्धालुजनों ने जगह-जगह पटुका पहनाकर और दूध वितरित कर शोभायात्रा का स्वागत किया. करीब एक दर्जन आकर्षक झांकियों ने इस शोभायात्रा की भव्यता को और बढ़ाया। इनमें सबसे अधिक चर्चा का विषय रहा “काली का अखाड़ा”, जिसने अपनी जोशीली लाठी कलाओं और पारंपरिक अंदाज़ से उपस्थित लोगों का मन मोह लिया.

श्रीकृष्ण और बलराम के स्वरूप बने शोभायात्रा का केंद्रबिंदु
शोभायात्रा में श्रीकृष्ण और बलराम के स्वरूपों ने अपने सखाओं के साथ परंपरागत लाठी प्रदर्शन कर माहौल को रोमांचक बना दिया, हाथों में चमचमाती लाठियां, माथे पर तिलक और जयकारों की गूंज — पूरा वातावरण “जय श्रीकृष्ण” और “हर हर महादेव” के जयघोषों से भर गया. बारिश की हल्की फुहारों के बावजूद भक्तों का उत्साह चरम पर रहा। भीगे मौसम में भी श्रद्धालु “कृष्ण बलराम की जय” का उद्घोष करते हुए झूमते नजर आए.

कुबलियापीड़ हाथी वध की परंपरा का जीवंत पुनर्मंचन
शोभायात्रा के समापन स्थल केशव देव मंदिर के पास हाथी वध स्थल पर परंपरा के अनुसार कार्यक्रम का मुख्य दृश्य प्रस्तुत किया गया. श्रीकृष्ण और बलराम के स्वरूपों ने प्रतीकात्मक कुबलियापीड़ हाथी के पुतले पर सबसे पहले प्रहार करते हुए उसके दांत निकाले, उनके इशारे पर सखाओं ने अपनी लाठियों से पुतले को परास्त किया — इस दृश्य ने पौराणिक कथा को जीवंत कर दिया, जिसमें बुराई पर अच्छाई की विजय का संदेश निहित है. दर्शकों ने तालियों की गड़गड़ाहट और जयघोषों से इस दृश्य का स्वागत किया. हर वर्ष की भांति, इस वर्ष भी यह आयोजन ब्रज संस्कृति की समृद्ध परंपराओं और श्रीकृष्ण की वीरता के प्रतीक के रूप में संपन्न हुआ.

धर्म, संस्कृति और परंपरा का अद्भुत संगम
कुबलियापीड़ हाथी वध मेला न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह ब्रज संस्कृति की जीवंत धरोहर भी है, यह आयोजन सदियों पुरानी उस परंपरा को आगे बढ़ाता है जिसमें बुराई के अंत और धर्म की स्थापना का प्रतीकात्मक चित्रण किया जाता है.

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